Monday, January 30

नीम के औषधीय प्रयोग




By- Dr.Kailash Dwivedi

नीम भारतीय मूल का एक सदाबहार वृक्ष है। इसका स्वाद तो कड़वा होता है लेकिन इसके फायदे तो अनेक और बहुत प्रभावशाली है।नीम के चिकित्सीय गुणों को पाठकों के हितार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ |

उपयोग :

  • नीम की छाल का लेप सभी प्रकार के चर्म रोगों और घावों के निवारण में सहायक है।
  • नीम की दातुन करने से दांत और मसूड़े स्वस्थ रहते हैं।
  • नीम की पत्तियां चबाने से रक्त शोधन होता है और त्वचा विकार रहित और कांतिवान होती है। 
  • नीम की पत्तियों को पानी में उबाल उस पानी से नहाने से चर्म विकार दूर होते हैं, और ये खासतौर से चेचक के उपचार में सहायक है और उसके विषाणु को फैलने न देने में सहायक है।
  • नींबोली (नीम का छोटा सा फल) और उसकी पत्तियों से निकाले गये तेल से मालिश की जाये तो शरीर के लिये अच्छा रहता है।
  • नीम के द्वारा बनाया गया लेप वालों में लगाने से बाल स्वस्थ रहते हैं और कम झड़ते हैं।
  • नीम की पत्तियों के रस और शहद को 2 : 1  के अनुपात में पीने से पीलिया में फायदा होता है, और इसको कान में डालने कान के विकारों में भी फायदा होता है।
  • नीम के तेल की 5 : 10  बूंदों को सोते समय दूध में डालकर पीने से ज़्यादा पसीना आने और जलन होने सम्बन्धी विकारों में बहुत फायदा होता है।
  • नीम के बीजों के चूर्ण को खाली पेट गुनगुने पानी के साथ लेने से बवासीर में काफ़ी फ़ायदा होता है।
                                   

विभिन्न रोगों में नीम का उपयोग :

घाव, फोड़े-फुंसी, बदगांठ, घमौरी तथा नासूर  :

घाव एवं चर्मरोग बैक्टेरियाजनित रोग हैं और नीम का हर अंग अपने बैक्टेरियारोधी गुणों के कारण इस रोग के लिए सदियों से रामवाण औषधि के रूप में मान्यता प्राप्त है। घाव एवं चर्मरोग में नीम के समान आज भी विश्व के किसी भी चिकित्सा-पद्धति में दूसरी कोई प्रभावकारी औषधि नहीं है। इसे आज दुनियाँ के चिकित्सा वैज्ञानिक भी एकमत से स्वीकारने लगे हैं।

  • दुष्ट व न भरने वाले घाव को नीम पत्ते के उबले जल से धोने और उस पर नीम का तेल लगाने से वह जल्दी भर जाता है। नीम की पत्तियाँ भी पीसकर लगाने से लाभ होता है।
  • गर्मी के दिनों में घमौरियाँ निकलने पर नीम पत्ते के उबले जल से नहाने पर लाभ होता है।
  • नीम की पत्तियों का रस, सरसों का तेल और पानी, इनको पकाकर लगाने से विषैले घाव भी ठीक हो जाते हैं।
  • हमेशा बहते रहने वाले फोड़े पर नीम की छाल का भस्म लगाने से लाभ होता है।
  • छाँव में सूखी नीम की पत्ती और बुझे हुए चूने को नीम के हरे पत्ते के रस में घोटकर नासूर में भर देने से वह ठीक हो जाता है। 
  • जिस घाव में नासूर पड़ गया हो तथा उससे बराबर मवाद आता हो, तो उसमें नीम की पत्तियों का पुल्टिस बांधने से लाभ होता है।

चर्मरोग  :

रक्त की अशुद्धि तथा परोपजीवी कीटाणुओं के प्रवेश से उकवत, खुजली, दाद-जैसे चर्मरोग होते हैं। इसमें नीम का अधिकांश भाग उपयोगी है।

  • मजिष्ठादि क्वाथ + नीम की छाल +पीपल की छाल एवं गिलोय का क्वाथ बराबर मात्रा में मिलाकर प्रतिदिन एक महीने तक लगाने से एक्जिमा नष्ट होता है।
  • एक्जिमा में नीम का रस नियमित कुछ दिन तक लगाने और एक चम्मच रोज पीने से भी १०० प्रतिशत लाभ होता है। 
  • नीम के पत्तों को पीसकर दही में मिलाकर लगाने से  दाद मिट जाता है।
  • वसंत ऋतु में दस दिन तक नीम की कोमल पत्ती तथा गोलमीर्च पीसकर खाली पेट पीने से साल भर तक कोई चर्मरोग नहीं होता, रक्त शुद्ध रहता है।

जले-कटे में नीम  :

  • आग से जले स्थान पर नीम का तेल लगाने अथवा नीम तेल में नीम पत्तों को पीस कर लेप करने  से शान्ति मिलती है।
  • नीम की पत्ती को पानी में उबाल कर ठंडा होने पर उसमें जले हुए अंग को डुबोने से भी शीघ्र राहत मिलती है।
  • कटे स्थान पर नीम का तेल लगाने से टिटनेस का भय नहीं होता।

कुष्ठरोग :

यह रोग एक छड़नुमा ‘माइक्रोबैक्टेरिया लेबी’ से होता है। चमड़ी एवं तंत्रिकाओं में इसका असर होता है। यह दो तरह का होता है-पेप्सी बेसीलरी, जो चमड़ी पर धब्बे के रूप में होता है, स्थान सुन्न हो जाता है। दूसरा मल्टीबेसीलरी, इसमें मुँह लाल, उंगलियाँ टेढ़ी-मेढ़ी तथा नाक चिपटी हो जाती है। नाक से खून आता है। दूसरा संक्रामक किस्म का रोग है।
प्राचीन आयुर्वेद का मत है कि कुष्ठरोगी को बारहों महीने नीम वृक्ष के नीचे रहने, नीम के खाट पर सोने, नीम का दातुन करने, प्रात:काल नित्य 50 ग्राम नीम की पत्तियों को पीस कर पीने, पूरे शरीर में नित्य नीम तेल की मालिश करने, भोजन के वक्त नित्य पाँच तोला नीम का रस  पीने, शैय्या पर नीम की ताजी पत्तियाँ बिछाने, नीम पत्तियों का रस जल में मिलाकर स्नान करने तथा नीम तेल में नीम की पत्तियों की राख मिलाकर घाव पर लगाने से पुराना से पुराना कोढ़ भी नष्ट हो जाता है।

सफ़ेद दाग (ल्यूकोडर्मा ) :

शरीर के विभिन्न भागों में चकते के रूप में चमड़ी का सफेद हो जाना, फिर पूरे शरीर की चमड़ी का रंग बदल जाना,ल्यूकोडर्मा रोग है। नीम की ताजी पत्ती के साथ बाकुची का बीज तथा चना पीसकर लगाने से इस रोग में अत्यंत लाभ होता है।

बवासीर  :

  • प्रतिदिन नीम की 21 पत्तियों को मूंग की भिगोई और धोयी हुई दाल मे पीसकर बिना कोई मसाला डाले पकौड़ी बनाकर 21 दिन तक खाने से हर तरह का बवासीर निर्बल होकर गिर जाता है। पथ्य में सिर्फ ताजा मट्ठा, भात एवं सेंघा नमक लिया जाना चाहिए।

मसूड़ों से खून आने और पायरिया होने पर नीम का उपयोग  :

  • नीम  के तने की भीतरी छाल या पत्तों को पानी में औंटकर कुल्ला करने से लाभ होता है। इससे मसूड़े और दाँत मजबूत होते हैं। नीम के फूलों का काढ़ा बनाकर पीने से भी इसमें लाभ होता है।
  • नीम का दातुन नित्य करने से दाँतों के अन्दर पाये जाने वाले कीटाणु नष्ट होते हैं। दाँत चमकीला एवं मसूड़े मजबूत व निरोग होते हैं।

बालों के जुंए, भूरापन तथा कील-मुहांसा :

  • नीम के तने का भीतरी छाल घिसकर चेहरे पर लगाने से , त्वचा कोमल तथा कील-मुहांसों से मुक्त हो जाती है |
  • बालों में नीम का तेल लगाने से जुएं तथा रूसी नष्ट होते हैं।
  • नीम तेल नियमित सिर में लगाने से गंजापन या बाल का तेजी से झड़ना रूक जाता है। यह बालों को भूरा होने से भी बचाता है।

पेट-कृमि :

  • आंत में पड़ने वाली सफेद कृमि या केचुए को जड़ से नष्ट करने में संभवत: नीम जैसी गुणकारी कोई अन्य औषधि नहीं है। नीम की पत्ती 20 नग तथा काली मिर्च 10 नग थोड़े से नमक के साथ पीसकर एक गिलास जल में घोलकर खाली पेट 3-4 दिन तक पी लेने से इन कृमियों से कम से कम 2-3 वर्ष तक के लिए मुक्ति मिल जाती है।

मलेरिया :

नीम वृक्ष मलेरिया-रोधी के रूप में प्रसिद्ध है। इसकी छाया में रहने और इसकी हवा लेने वालों पर मलेरिया का प्रकोप नहीं होता। मलेरिया मुख्यत: मच्छरों के काटने से होता है। सर्दी, कंपकपाहट, तेज बुखार, बेहोशी, बुखार उतरने पर पसीना छूटना, इसके प्रमुख लक्षण हैं।
इस रोग में नीम के तने की छाल का काढ़ा दिन में तीन बार पिलाने अथवा नीम के जड़ की अन्तर छाल 50 ग्राम,  600 मिली. पानी में 20 मिनट तक उबालकर और छानकर ज्वर चढ़ने से पहले २-३ बार पिलाना चाहिए। इससे ज्वर उतर जाता है।  नीम तेल में नारियल या सरसो का तेल मिलाकर शरीर पर मालिश करने से भी मच्छरों के कारण उत्पन्न मलेरिया ज्वर उतर जाता है।

सामान्य एवं विषम ज्वर :

  • नीम के अन्तर छाल का चूर्ण, सोंठ तथा मीर्च का काढ़ा विषम ज्वर में देने से लाभ होता है। इसमें नीम के तेल की मालिश करने भी लाभ होता है। ये औषधियाँ रोगी को कुछ खिलाने से पहले दी जानी चाहिए।
  • तेज सिहरनयुक्त ज्वर के साथ उल्टी होने पर नीम की पत्ती के रस शहद एवं गुड़ के साथ देने से लाभ होता है। नीम का पंचांग (पता, जड़ फूल, फल और छाल) को एक साथ कूटकर घी के साथ मिलाकर देने से भी लाभ होता है।

चेचक :

इसकी भयंकरता के कारण इस रोग को दैवी प्रकोप माना जाता रहा है। यह जब उग्र रूप धारण करता है तब बड़े-बड़े चिकित्सकों की भी कुछ नहीं सुनता। आयुर्वेद में चेचक के रोकथाम के जो निदान बातये गये हैं उनमें नीम का उपयोग ही सर्वाधिक वर्णित है। इसके सेवन से या तो चेचक निकलता ही नहीं अथवा निकलता भी है तो उग्र नहीं होता, क्रमश: शान्त हो जाता है। नीम में चूंकि दाहकता शान्त करने के शीतल गुण हैं, इसलिए यह लोक जीवन में शीतला देवी के रूप में भी पूजित है।

चेचक कभी निकले ही नहीं, इसके लिए आयुर्वेद में उपाय है कि चैत्र में दस दिन तक प्रात:काल नीम की कोमल पत्तियाँ गोल मिर्च के साथ पीस कर पीना चाहिए। नीम का बीज, बहेड़े का बीज और हल्दी समान भाग में लेकर पीस-छानकर कुछ दिन पीने से भी शीतला/चेचक का डर नहीं रह जाता।

चेचक निकलने पर रोगी को स्वच्छ घर में नीम के पत्तों पर लिटाना, घर में नीम की ताजा पत्तियों की टहनी का बन्दनवार लटकाना तथा नीम का चंवर बनाकर रोगी को हवा देना चाहिए। बिस्तर की पत्तियाँ नित्य बदल देनी चाहिए। रोगी को यदि अधिक जलन महसूस हो तो नीम की पत्तियों को पीसकर पानी में घोलकर तथा मथानी से मथकर उसका फेन चेचक के दानों पर सावधानी पूर्वक लगाना चाहिए। इससे भी राहत नहीं मिलने पर नीम की कोमल पत्तियाँ पीसकर चेचक के दानों पर हल्का लेप चढ़ाना चाहिए। नीम के बीज की गिरी को पीसकर भी लेप करने से दाहकता शीघ्र कम होती है। रोगी को प्यास लगने पर नीम के छाल को जलाकर उसके अंगारों को पानी में बुझाकर उस पानी को छान कर पिलाना चाहिए। नीम की पत्तियों को पानी में औंटकर पिलाने से भी दाहकता शान्त होती है। इससे चेचक का विष एवं ज्वर भी कम होता है, चेचक के दाने शीघ्र सूखते हैं। चेचक के दाने ठीक से न निकलने पर भी बेचैनी होती है। अत: नीम की पत्तियाँ पीस कर दिन में तीन बार पिलाने से वह शीघ्र निकल आते हैं। जब दाने सूख जाएँ तब नीम का पत्ता जल में उबालकर रोगी को कुछ दिन नियमित स्नान और नीम तेल की मालिश करनी चाहिए। इससे चेचक के दाग भी मिट जाते हैं। नीम बीज की गिरी पानी में गाढ़ा पीस कर दाग पर लगाना भी फायदेमंद होता है। चेचक होने पर कई रोगियों के कुछ बाल भी झड़ जाते हैं। इसमें नीम तेल माथे पर लगाने से बाल पुन: उग आते हैं।

प्लेग :

वायरस कीटाणुओं से होने वाला यह एक संक्रामक बीमारी है। मिट्टी, जल और वायु के प्रदूषण से इसके कीटाणु (पिप्सू) संक्रमित होते हैं, जो पहले चूहों में लगते हैं, फिर चूहों से मिट्टी, खाद्य पदार्थ, जल एवं वायु के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश करते हैं। तेज बुखार, साँस लेने में कठिनाई, खून की उल्टियाँ, आँत में दर्द, बगल तथा गले में सूजन अथवा गांठे पड़ जाना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं। आयुर्वेद में इसे ग्रन्थिक या वातलिकार ज्वर कहा जाता है। यह बहुत तेजी से फैलता है। इसके वायरस शरीर की कोशिकाओं को नष्ट कर व्यक्ति को अपनी चपेट में तुरन्त ले लेते हैं।
प्लेग के शिकार रोगी को नीम का पंचाग (बीज, छाल, पत्ता, फूल, गोद) कूटकर पानी मे छानकर दस-दस तोले की मात्रा हर पन्द्रह मिनट पर देनी चाहिए। तत्काल नीम के पांचों अंग न मिले तो जो भी मिले उसी को देना चाहिए। शरीर के जोड़ों पर नीम की पत्तियों की पुल्टिस बांधने तथा आस-पास नीम की लकड़ी-पत्तों की घूनी करने से भी प्लेग का शमन होता है।
प्लेग फैलते ही स्वस्थ लोगों को नीम के पत्ते पीस कर नित्य पीते रहना चाहिए, इससे प्लेग का उनपर असर नही होता।

हैजा :

यह अशुद्ध/दूषित जल के उपयोग से फैलने वाला संक्रामक रोग है। इसके जीवाणु पहले आंत में प्रतिक्रिया करते हैं। तत्काल उपाय न होने पर देखते-देखते रोगी मर जाता है। ग्लूकोज या नमक चीनी का घोल तुरन्त दिया जाना लाभदायक होता है। इसके फैलने पर व्यक्ति को पानी उबालकर पीना चाहिए, मांस-मंछली वर्जित करना चाहिए, खुले स्थान के मल को मिट्टी से ढक देना या लैट्रिन की विधिवत सफाई होती रहनी चाहिए।
हैजा ‘विब्रियो कैलेरा’ नामक जीवाणु से संक्रमित होता है। कूड़े-कचड़ों के सड़न में इनका निवास अधिक होता है। इस बैक्टेरिया से ग्रस्त व्यक्ति अपने मल द्वारा हैजे के करोड़ों जीवाणु वातावरण में छोड़ता है, उससे जल, मिट्टी, खाद्य पदार्थ तथा वायु संक्रमित होते हैं। मक्खियाँ भी इसके संवाहक बनती हैं। उल्टी-दस्त, हाथ-पांव में ऐठन और तेज प्यास इसके प्रमुख लक्षण हैं।
नीम के पत्तों को पीसकर, गोला बनाकर तथा कपड़े में बांधकर ऊपर सनी हुई मिट्टी का मोटा लेप चढ़ाकर उसे आग के धूमल (भभूत) में पकाना चाहिए, जब वह लाल हो जाय तब थोड़ी-थोड़ी देर पर उस पके हुए गोले को अर्क गुलाब के साथ रोगी को देने से दस्त, वमन एवं प्यास रूकता है। नीम तेल की मालिश से शरीर का ऐंठन कम होता है। हैजे में नीम तेल पानी के साथ पीने से भी लाभ होता है। नीम छाल का काढ़ा पतले दस्त में भी लाभकारी होता है।

पीलिया :

नीम का रस  या छाल का क्वाथ(काढ़ा)  शहद में मिलाकर नित्य सुबह लेने से पीलिया में लाभ होता है।

मधुमेह/डायबिटीज :

नीम के तने की भीतरी छाल तथा मेथी के चूर्ण का काढ़ा बनाकर कुछ दिनों तक नियमित पीने से मधुमेह की हर स्थिति में लाभ मिलता है।

गठिया, वातरोग, साइटिका, जोड़ों में दर्द (अर्थराइटीस) :

इन रोगों में नीम तेल की मालिश, नीम की पत्तियों को पीसकर एवं गर्म कर जोड़ों पर लेप करने , नीम का रस  पीने, नीम के सूखे बीज का चूर्ण हर तीसरे दिन महीने भर खाने से काफी लाभ मिलता है। नीम के छाल को पानी के साथ पीस कर जोड़ों के दर्द वाले स्थान पर गाढ़ा लेप करने से भी दर्द दूर होता है।

सूजन, लकवा, चोट-मोच :

नीम के छाल का अर्क २ से ४ तोले तक नित्य पीने और इसके सेवन के २ घंटे बाद तत्काल बनी रोटी घी के साथ खाने से लकवा अर्द्धांश में लाभ होता है। पक्षाघात वाले अंगों पर नीम तेल की मालिश करने की भी सलाह दी जाती है।
चोट लगने के कारण आयी मोच और गिल्टियों के सूजन पर नीम की पत्तियों की वाष्प  देने से लाभ होता है।

कफ, पित्त  :

  • नीम तथा वक के छाल का काढ़ा कफ में लाभदायक होता है।
  • नीम का फूल, इमली तथा शहद के साथ खाने से कफ एवं पित्त दोनों का शमन होता है।

दमा  :

नीम का शुद्ध तेल ३० से ६० बूंद तक पान में रखकर खाने से दमा से छुटकारा मिलता है। नीम के २० ग्राम पत्ते को आधा लीटर पानी में उबालकर जब एक कप रह जाय, कुछ दिन पीते रहने से भी दमा जड़ से नष्ट होता है।

पथरी  :

नीम की पत्तियों की राख २ ग्राम,  जल के साथ नियमित कुछ दिन तक खाते रहने से पथरी गलकर नष्ट हो जाती है।

मन्दाग्नि, वायुरोग  :

  • नीम की पकी निबोली अथवा नीम का फूल कुछ दिन नित्य खाने से मंदाग्नि में काफी लाभ होता है।
  • नीम तेल ३० बूंद पान के साथ खाने से वायु विकार तथा पेट का मरोड़ दूर होता है।

वमन, विरेचन तथा नशा एवं विष उतारने के लिए  :

  • नीम बीज जल के साथ खिलाने पर वमन होता है। यह मृदु विरेचक है।
  • कई वर्षों तक लगातार हर साल १०-१५ दिन तक नीम की पत्तियों का सेवन किये हुए व्यक्ति को सर्प, बिच्छू आदि के विष का असर नहीं होता।
  • बिच्छू तथा मधुमक्खी के काटने पर नीम की पत्तियों को पीसकर लेपनी  चाहिए। 
  • इसको पीने से संखिया का विष भी उतर जाता है। 
  • नीम पत्तों का तेज अर्क अफीम के विष का नाशक है। 
  • कच्ची या पक्की निबोली गर्म पानी से पिलाने पर उल्टी होती है, इससे विष का असर नष्ट होता है।
  • नीम बीज का चूर्ण गर्म पानी के साथ पीने से भी विष उतरता है।

शुद्धिकरण में नीम  :

  • पुराने देशी घी या तेल को शुद्ध करने के लिए गर्म करते समय नीम की पत्तियाँ डाली जाती हैं।
  • अधिक नीम के सेवन से उत्पन्न हुए विकार दूध या सेंधा नमक खाने से दूर होते हैं।
  • नीम की पत्तियों से उबला जल या नीम तेल पानी में मिलाकर फर्श धोने से वातावरण शुद्ध होता है।
  • शवदाह के बाद लौटने या कोई घृणित चीज देखने से उत्पन्न हुए चित्त विकार नीम की पत्तियाँ/टूसे चबाने से दूर होते हैं।

कोलेस्ट्रोल नियंत्रण :

कोलेस्ट्रोल रक्त में पाया जाने वाला पीले रंग का एक मोमी पदार्थ है। जब रक्त में यह अधिक हो जाता है, तब रक्त-वाहिनी धमनियों के अन्दर यह जमने लगता है, थक्का बनाकर रक्त-प्रवाह को अवरुद्ध करता है।
कोलेस्ट्रोल दो तरह के होते हैं- एच.डी.एल. और एल.डी.एल.। इसमें पहला स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, दूसरा बुरा। बुरा कोलेस्ट्रोल अधिक वसायुक्त पदार्थ (तेल, घी, डालडा), माँस, सिगरेट तथा अन्य नशीले पदार्थों के सेवन से पैदा होता है। बुरा कैलेस्ट्रोल की वृद्धि से रक्त दूषित होता है, उसका प्रवाह रुकता है और दिल का  दौरा पड़ता है।

नीम एक रक्त-शोधक औषधि है, यह बुरे कोलेस्ट्रोल को कम या नष्ट करता है। नीम का महीने में १० दिन तक सेवन करते रहने से हार्ट अटैक की बीमारी दूर हो सकती है।

मासिक धर्म एवं सुजाक  :

  • आयुर्वेद मत में नीम की कोमल छाल 5 ग्राम  तथा पुराना गुड २ तोला, डेढ़ पाव पानी में औटाकर जब आधा पाव रह जाय तब छानकर स्त्रियों को पिलाने से रुका हुआ मासिक धर्म पुन: शुरू हो जाता है।
  • नीम छाल २ तोला सोंठ, ५ ग्राम  एवं गुड़ २ तोला मिलाकर उसका काढ़ा बनाकर देने से मासिक धर्म की गड़बड़ी ठीक होती है।
  • स्त्री योनि में सुजाक (फुंसी, चकते) होने पर नीम के पत्तों के उबले गुनगुने जल से धोने से लाभ होता है
  • नीम पत्ती के उबले पर्याप्त जल में जो सुसुम हो, कटि स्नान से सुजाक का शमन होता है और शान्ति मिलती है। पुरूष लिंग में भी सुजाक होने पर यही उपचार करना चाहिए |इससे सूजन भी उतर जाती  है और पेशाब ठीक होने लगता है।

प्रदर रोग :

प्रदर रोग मुख्यत: दो तरह के होते हैं-श्वेत एवं रक्त। जब योनि से सड़ी मछली के समान गन्ध जैसा, कच्चे अंडे की सफेदी के समान गाढ़ा पीला एवं चिपचिपा पदार्थ निकलता है, तब उसे श्वेत प्रदर कहा जाता है। यह रोग प्रजनन अंगों की नियमित सफाई न होने, संतुलित भोजन के अभाव, बेमेल विवाह, मानसिक तनाव, हारमोन की गड़बड़ी, शरीर से श्रम न करने, मधुमेह, रक्तदोष या चर्मरोग इत्यादि से होता है। इस रोग की अवस्था में जांघ के आस-पास जलन महसूस होता है, शौच नियमित नहीं होता, सिर भारी रहता है और कभी-कभी चक्कर भी आता है।
  • श्वेत प्रदर में नीम की पत्तियों के क्वाथ से योनिद्वार को धोना और नीम छाल को जलाकर उसका धुआं लगाना लाभदायक माना गया है। इससे दुर्गन्ध तथा चिपचिपापन दूर होने के साथ योनिद्वार शुद्ध एवं संकुचित होती  है। यह आयुर्वेद ग्रंथ ‘गण-निग्रह’ का अभिमत है।
रक्त प्रदर भी  एक गंभीर रोग है। योनि मार्ग से अधिक मात्रा में रक्त का बहना इसका मुख्य लक्षण है। यह मासिक धर्म के साथ या बाद में भी होता है। इस रोग में हाथ-पैर में जलन, प्यास ज्यादा लगना, कमजोरी, मूर्च्छा तथा अधिक नींद आने की शिकायतें होती हैं।
  • रक्त प्रदर में नीम के तने की भीतरी छाल का रस तथा जीरे का चूर्ण मिलाकर पीने से रक्तस्राव बन्द होता है तथा इस रोग की अन्य शिकायतें भी दूर होती हैं।

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