
By- Dr.Kailash Dwivedi
अथ अश्वनीमुद्राकथनम्।
अश्विनीमुद्रायाः फलकथनम्।
श्रीघेरण्डसंहितायां घेरण्डचण्डसंवादे घटस्थयोगप्रकरणे मुद्राप्रयोगो नाम तृतीयोपदेशः ॥
जिस प्रकार से अश्व (घोडा) अपने गुदाद्वार को बार-बार सिकोड़ता एवं ढीला करने की क्रिया करता है उसी प्रकार से अपने गुदाद्वार से यह क्रिया करने से अश्वनी मुद्रा बनती है | इस मुद्रा का नाम भी इसी आधार पर पड़ा है | घोड़े में बल एवं फुर्ती का रहस्य यही मुद्रा है, इस क्रिया के करने के फलस्वरूप घोड़े में इतनी शक्ति आ जाती है कि आज के मशीनी युग में भी इंजन आदि की शक्ति अश्वशक्ति (HORSE POWER) से ही मापी जाती है |
विधि :
- कगासन (जैसे शौच के समय टॉयलेट में बैठते हैं) में बैठ जाएँ |
- अपने गुदाद्वार को जैसे मूलबन्ध के समय या मल-मूत्र के वेग को रोकते समय अंदर खींचते हैं,उसी तरह से खींचकर रखें |
- कुछ देर इसी स्थिति में रहें फिर गुदा को ढीला छोड़ दें |
- इस प्रक्रिया को बार-बार यथासंभव दोहराएँ |
सावधानियां :
मुद्रा करने का समय व अवधि :
- सामान्य स्थिति में यह क्रिया लेटकर,बैठकर या चलते-फिरते कभी भी दिन में कई बार कर सकते हैं |
- अश्वनी मुद्रा एक बार में कम-से-कम 50 बार करनी चाहिए |
चिकित्सकीय लाभ :
- अश्वनी मुद्रा के निंरतर अभ्यास से गुदा से सम्बंधित समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं |
- इस मुद्रा को करने से शरीर बलवान हो जाता है |
- अश्वनी मुद्रा करने से व्यक्ति की आयु बढती है एवं वह आजीवन निरोग रहता है |
- अश्वनी मुद्रा के अभ्यास से नपुंसकता दूर हो जाती है | यह मुद्रा शीघ्रपतन रोकने में अत्यंत प्रभावी है |
- शौच के समय यदि इस क्रिया को बार –बार किया जाये तो शौच खुलकर आता है |
आध्यात्मिक लाभ :
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