Friday, April 17

प्राकृतिक चिकित्सा के आधारभूत सिद्धांत

1. सभी रोग एक ,उनका कारण एक और उनकी चिकित्सा भी एक ही है  
          प्राकृतिक चिकित्सा सिद्धांत के अनुसार सभी रोग वास्तव में एक ही होते हैं। उन रोगों का कारण और उनकी चिकित्सा भी एक समान होती है। प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान का यह अटल सिद्धांत है कि मानव शरीर में एकत्रित एक ही विजातीय द्रव्य अनेक रोगों के रूप में प्रकट होता है। जिन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है। सभी प्रकार के रोग अनेक होते हुए भी वास्तव में एक ही होते हैं। केवल उनके रूप और प्रकार में भिन्नता होती है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है।
          मान लेते हैं कि किसी घर में 4 सदस्य एक साथ रहते हैं। चारों लोग अप्राकृतिक रूप से जीवनयापन करते हैं। वे उत्तेजक तथा मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं, आवश्यकता से अधिक भोजन करते हैं, परिश्रम नहीं करते हैं तथा निर्मल जल, सूर्य का प्रकाश तथा स्वच्छ वायु आदि प्राकृतिक उपादानों का उचित रूप से भी सेवन भी नहीं करते हैं इसके परिणामस्वरूप उन चारों व्यक्तियों के शरीर का रक्त जहरीला हो जाता है। उनका शरीर दूषित मल (जिसे प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान की भाषा में `विजातीय द्रव्य` कहते हैं।) से भर जाता है। जिसके परिणामस्वरूप चारों सदस्य रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। परिस्थिति, आयु, प्रकृति आदि के अनुसार उन चारों प्राणियों में सभी अलग-अलग बीमारियों से पीड़ित होते हैं जैसे कोई दस्त से पीड़ित हो सकता है, किसी को बुखार हो सकता है, किसी को गठिया का रोग हो सकता है तो किसी को बवासीर होती हैं। ये सभी रोग एक-दूसरे से भिन्न होते हैं किन्तु उनका होने का कारण एक ही होता है। आवश्यकता इस बात कि है कि शरीर के उपस्थिति विजातीय द्रव्यों का बहिष्करण विभिन्न तरीकों से करना जैसे- उपवास और संतुलित आहार से शरीर की जीवनीशक्ति को बढ़ाना तथा जलोपचार, मिट्टी की पट्टी सेंक, मर्दन, एनिमा, आदि से शरीर के मल मार्गों को पूर्णत: खोलकर उनको क्रियाशील कर देना ताकि वे शरीर के मल को आसानी से शरीर से बाहर निकाल सके। उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि वास्तव में संसार के सभी रोग एक ही हैं तथा उनके होने का कारण भी एक ही होता है तथा उन रोगों का निदान और चिकित्सा भी एक ही होती है। प्राकृतिक चिकित्सा के सि़द्धांतों के अनुसार किसी रोग का इलाज करने से सम्बंधित रोग के साथ छोटे-छोटे रोग भी नष्ट हो जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि सभी रोग एक ही होते हैं और वे सभी रोग एक ही प्रकार की चिकित्सा से नष्ट भी हो जाते हैं क्योंकि उन समस्त रोगों के उत्पन्न होने का एक ही कारण होता है -शरीर में मल (विजातीय द्रव्य) का एकत्र हो जाना।

2. रोग उत्पन्न होने का कारण कीटाणु नहीं होता :
 उपर्युक्त विवेचन से पूर्ण रूप से यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीर में एकत्रित दूषित मल ही रोग के उत्पन्न होने का कारण होता है। इस बात को जान लेने के बाद ही इस बात की थोड़ी सी भी शंका ही नहीं रह जाती है कि वस्तुत: कीटाणु रोगों के कारण नहीं होते हैं। जैसा कि आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सकों की धारणा ही नहीं, वरन उनका सिद्धांत भी है। यदि हम नियमित रूप से सही तरीके से आहार ग्रहण करते हैं तो कीटाणु जो पूरे संसार भर में फैले हुए हों हमारे शरीर में प्रविष्ट होकर वहां रह ही नहीं सकते हैं | परन्तु यदि हमारा खानपान अनियमित और आप्राकृतिक होगा तो वे हमारे शरीर में असंख्य कीटाणुओं का रूप धारण करके हमें अवश्य ही रोगी बना डालेंगे। यह एक प्राकृतिक नियम है कि सृष्टि में जितने भी पदार्थ पाये जाते हैं, इनके सूक्ष्म परमाणु अनवरत रूप से गतिशील रहते हैं जिन वस्तुओं के परमाणु समान रूप से गतिशील रहते हैं उनमें परस्पर आकर्षण होता है और विरुद्ध गति वाले परमाणु एक सी गति रखते हैं। अत: इस सिद्धांत के अनुसार रोग के कीटाणुओं का अस्तित्व उन्हीं के शरीरों में सम्भव है जिनमें पहले ही रोग का कारण विजातीय द्रव्य विद्यमान रहते हैं अथवा जो रोगग्रस्त हैं। लेकिन जिन शरीरों के भीतर, कीटाणुओं के विपरीत पोषक तत्व विद्यमान होंगे अर्थात जो विजातीय द्रव्य से सर्वथा मुक्त होंगे और सही अर्थों में जो स्वस्थ होंगे, वहां पर उनका अस्तित्व असंभव है। यदि यह कार्य सम्भव मान भी लिया जाए तो ऐसे मानव शरीरों में निषेधक शक्ति पहले से ही विद्यमान होने के कारण रोगों का प्रभाव नष्ट होकर वह स्वयं ही नष्ट हो जाएंगे। कीटाणु रोग उत्पन्न होने का कारण नहीं होते हैं वरन रोग ही कीटाणुओं का कारण होता है।

3. हमारे शरीर में होने वाले रोग हमारे मित्र के समान होते हैं न कि शत्रु-
 हमारे शरीर में सदैव विजातीय द्रव्य (मल) उत्पन्न होता रहता है, जिसे हमारे शरीर के मलमार्ग, रोमकूप, गुर्दे, गुदा आदि प्रतिदिन निकालते रहते हैं। यदि किसी कारण से उस मल को बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिलता है तो वह शरीर में रोग उत्पन्न करके बाहर निकल जाने का प्रयास करता है। इसी स्थिति को रोग होना कहते हैं। इस तथ्य को समझ लेने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि आवश्यकता पड़ने पर मनुष्य को रोग होना कितना आवश्यक है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो रोग हमारे मित्र होते हैं, शत्रु नहीं, जो हमें स्वास्थ्य देने आते हैं, स्वास्थ्य लेने नहीं। इस बात को हम इस उदाहरण के द्वारा समझ सकते हैं।
          मान लेते हैं कि प्रकृति को हमारे शरीर में उपस्थित विजातीय द्रव्य (मल) को शरीर से बाहर निकालना है तो इस कार्य के लिए वह उल्टी और दस्त का सहारा लेती है, इसके साथ ही अधिक प्यास भी लग सकती है, यदि उसे मस्तिष्क को साफ करना है तो जुकाम होगा, प्यास अधिक लगेगी तथा नाक के रास्ते के द्वारा पानी बहेगा। जिसे हम सभी लोग समझते हैं वह वास्तव में चिकित्सा होती है। रोग होने पर हमें सतर्कतापूर्वक अपनी गलतियों को देखना चाहिए और विचार करना चाहिए कि हमारे द्वारा प्रकृति के नियमों को न अपनाये जाने के कारण हमें प्रकृति का दंड मिल रहा है। इसका प्रायश्चित रोगी बनकर करना पड़ रहा है। यह हमारे लिए ही लाभकारी होता है क्योंकि यह विकार शरीर में रह जाते तो हमारी गलतियों का क्रम जारी रहता जिसके फलस्वरूप हमें भविष्य में अधिक भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता। हमें रोगों से पीड़ित होने के बाद घबराना नहीं चाहिए बल्कि सच्चे मन से उसकी चिकित्सा करनी चाहिए।
विशेष :
 वास्तव में तीव्र रोगों का मुख्य कार्य हमें हमारे शरीर में उपस्थित विजातीय द्रव्यों के प्रति सचेत करना होता है। इसका कारण यह है कि रोगी में या तो जीवनीशक्ति बहुत कम होती है अथवा शरीर में स्थिति विजातीय द्रव्य की मात्रा अत्यधिक होती है या फिर उसका उपचार अपर्याप्त या हानिकर हुआ होता है। ऐसी स्थिति में प्रकृति अपनी सफाई का कार्य करने में असफल रह जाती है तो रोगी की मृत्यु हो जाती है। थककर सोने में जो सुख मिलता है या भोजन करने से व्यक्ति को शांति मिलती है उसी प्रकार की सुखशांति व्यक्ति को रोग से मुक्त होने के बाद मिलती है। रोग से मुक्त होने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि उसका शरीर हल्का हो गया है तथा उसका शरीर नया हो गया है और एक बोझा उसके सिर से नीचे उतर गया है। यदि रोगी को इन सभी  बातों की अनुभूति (महसूस) नहीं होती है तो हमें यह समझना चाहिए कि रोग पूर्ण रूप से ठीक नहीं हुआ है।

4. प्रकृति स्वयं चिकित्सक होती है - 
 प्राकृतिक चिकित्सा में यह माना जाता है कि जीवन का संचालन एक विचित्र और सर्वशक्तिमान सत्ता द्वारा होता है जो प्रत्येक व्यक्ति के पार्श्व में रहकर जन्म होने, मरने, स्वास्थ्य और रोग आदि बातों की देखभाल करती है। उस महान शक्ति को प्राकृतिक चिकित्सक ``जीवनीशक्ति `` कहते हैं। ईश्वर में विश्वास रखने वाले लोग इसे ईश्वरी शक्ति कहते हैं और ईश्वर को न मानने वाले उसे प्रकृति मानते हैं। हमारे शरीर में यही शक्ति रोग से मुक्ति देकर हमें अरोग्यता भी प्रदान करती है। प्राकृतिक चिकित्सा वह शक्ति है जो हमारे शरीर के आंतरिक भाग में निहित होती है। केवल यही हमारे स्वास्थ्य को बनाये रख सकती है और रोग को दूर कर सकती है।

5. चिकित्सा रोग की नहीं, रोगी के सम्पूर्ण शरीर की होती है- 
 चिकित्सा की अन्य पद्धतियों में रोगी के रोग की चिकित्सा पर अधिक जोर दिया जाता है। किन्तु प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में रोगी के सम्पूर्ण शरीर की चिकित्सा करके उसे रोग से मुक्त किया जाता है। जिससे रोग के निशान स्वयं ही मिट जाते हैं। वस्तुत: रोग तो शरीर के भीतर एकत्रित हुआ मल होता है जो समय पाकर रोग विशेष क्रिया द्वारा बाहर निकल जाने का प्रयत्न करता है। इसलिए रोग की चिकित्सा करते समय रोग के कारणों को ढूंढ़कर उनका इलाज करना चाहिए जैसे सिरदर्द होने पर सिरदर्द की दवा नहीं होनी चाहिए बल्कि सिरदर्द होने का कारण पाचनसंस्थान का दोष अथवा पूरे शरीर के रक्तविकार की चिकित्सा होनी चाहिए। जिससे सिर का दर्द स्वयं ही समाप्त हो जाएगा। प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली द्वारा सभी प्रकार के रोगों को ठीक किया जा सकता है लेकिन सभी रोगियों को नहीं। रोगी का अच्छा होना अथवा न होना निम्नांकित 5 बातों पर निर्भर करता है।
1. रोगी के शरीर में एकत्रित विजातीय द्रव्य (मल) कितनी मात्रा में है।
2. रोग को नष्ट करने के लिए उपयोगी जीवनीशक्ति रोगी के शरीर में है अथवा नहीं है।
3. रोगी अपने रोग का कितना इलाज कर चुका है अथवा कर रहा है, कहीं वह धैर्य को तो नहीं खो रहा है।
4. रोग से पीड़ित व्यक्ति प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली में विश्वास रखता है अथवा नहीं। 
      उपयुक्त बातों को हम एक उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं।
मान लीजिए कि टी.बी. की बढ़ी हुई अवस्था में प्राकृतिक चिकित्सा करने पर भी बहुत से रोगी मर जाते हैं। लेकिन यह निश्चित होता है कि प्राकृतिक चिकित्सा के बीच के समय मरने वालों की मृत्यु शांतिदायनी होती है। उपवास, फलाहार आदि के द्वारा रोगी का शरीर निर्मल हो जाता है जिसके कारण मरते समय व्यक्ति को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि आरम्भ से ही प्राकृतिक चिकित्सा होने के बावजूद रोगी की मृत्यु हो जाती है जिसमें रोगी के पैतृक रोग उसकी कमजोर जीवनीशक्ति और उसके पूर्व संस्कार के कारण होते हैं। प्राकृतिक चिकित्सकों का दावा होता है कि प्राकृतिक चिकित्सा से कभी भी किसी को हानि नहीं हो सकती है। ऐसा कभी भी नहीं होता है कि अन्य चिकित्सा प्रणालियों से बच सकने वाला रोगी प्राकृतिक चिकित्सा से न बच सके और मर जाए।

6. प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा रोग का उपचार :
यदि प्रकृति को यह स्वीकार होता कि रोग अथवा निरोगी होने की अवस्था में चिकित्सक निदान के लिए मनुष्य के शरीर के भीतरी अवयवों (हृदय, वृक्क, आन्तों आदि) को और उनमें होने वाली स्पंदन (कंपन, धड़कन) आदि प्राकृतिक क्रियाओं का होना देख सके तो वह मनुष्य के शरीर पर अपारदर्शी चमड़े और मांस का खोल चढ़ाकर उसे मजबूती के साथ नहीं जकड़ती, बल्कि मानव शरीर पर एक ऐसी झिल्ली लगी होती है कि जिसके माध्यम से डाक्टर रोग को आसानी से देख पाते हैं कि शरीर के भीतर के अंगों में क्या गड़बड़ी है और इस तरह रोग के इलाज करने में उन्हें सरलता होती, किन्तु ऐसा नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रकृति यह कभी भी नहीं चाहेगी कि कोई भी व्यक्ति बिना किसी कारण के परेशान हो। प्रकृति और परमात्मा के छिपे हुए रहस्यों का पता लगाने का दावा करने वाला मानवकृत विभिन्न नवीनतम चिकित्सीय यंत्रों से रोगों का पता लगाने वाले अर्थात रोगों का उपचार करने वाले के 90 प्रतिशत उपचार गलत होते हैं। बाकी बचे हुए 10 प्रतिशत महज इत्तेफाक (संयोग) होता है। यदि थोड़ी देर के लिए यह भी मान भी लिया जाए कि रोग का इलाज हो गया है किन्तु इलाज हो जाने से रोग का पता नहीं भी नहीं चलता है। इस सम्बंध में बड़े-बडे़ डाक्टरों का अनुभव बताता है कि औषधोपचार पद्धति में रोग का सही उपचार हो जाने के बावजूद भी कुछ रोग जीर्ण रोगों में परिवर्तित हो जाते हैं। शरीर में विजातीय द्रव्यों का एकत्र होना ही रोग होता है। इसके लिए एक प्राकृतिक चिकित्सक को केवल इतना देखना होता है कि वह द्रव्य शरीर के किस भाग में स्थित है इसके उदाहरण मोटे आदमी होते हैं। यदि यह सामान्य हुआ तो उसे प्राकृतिक उपचार द्वारा शीघ्र ही दूर किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त रोगी के मुख और गर्दन की स्थिति, त्वचा के बदले हुए रंग को देखकर, उसके रोग से पीड़ित होने का कारण रोगी से पूछकर भी रोग का इलाज कर लिया जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धांत प्रत्येक स्थिति में यहीं रहता है कि यह पता लगाया जाए कि रोगी के शरीर के किस भाग में किस अंग विशेष पर विजातीय द्रव्य का भार अधिक है। जिसे सूक्ष्म नज़रों से देखने से न केवल एक प्राकृतिक चिकित्सक ही नहीं बल्कि कोई भी जनसाधारण व्यक्ति भी देख सकता है।
          इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राकृतिक चिकित्सा के रोगोपचार की विधि भी उतनी ही सहज और सरल होती है, जितनी की उसकी चिकित्सा विधि। इसमें भटकने और बहकने का तनिक भी भय भी नहीं होता है।

7. प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा जीर्ण रोगों के ठीक होने में अधिक समय लगता है- 
 वर्तमान समय में सभी प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में प्राकृतिक चिकित्सा सबसे अधिक तेज रफ्तार वाली चिकित्सा है, मगर दिक्कत यह है कि व्यक्ति सभी तरह चिकित्सा कराने के बाद ही प्राकृतिक चिकित्सा की शरण में आता है, मगर तब तक वह रोग असाध्य हो चुका होता है। इस समय तक रोगी केवल रोग से ही नहीं बल्कि उसके इलाज हेतु दी गई दवाओं के जहर से भी पीड़ित होता है। इस प्रकार प्राकृतिक चिकित्सक को मुख्य रोग का इलाज करने के साथ-साथ ही उन दवाओं के विषों को भी शरीर के द्वारा निकालना पड़ता है जिसमें महीनों से लेकर सालों तक का समय लग सकता है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक चिकित्सा में निरोग होने का मतलब केवल रोग ही नहीं, बल्कि रोगी को नया जीवन प्रदान करना, शरीर को पूर्णरूप से तन्दुरुस्त, मजबूत और शक्तिशाली होना भी होता है। अत: स्वास्थ्य लाभ की इस प्रक्रिया में काफी अधिक समय भी लग सकता है।
          प्रकृति के सभी कार्य तेजी से नहीं बल्कि धीरे-धीरे होते हैं। जो शक्ति धीरे-धीरे संचित होती है वह इकटठे होने के बाद बडे़ से बड़े पर्वत को भी नष्ट कर सकती है। कोई भी ऐसी शक्ति नहीं है जो बीज को तुरंत पेड़ का आकार दे दे। एक कहावत प्रचलित है कि जल्दी का काम शैतान का होता है। पेड़ काट डालना मिनटों का काम होता है जबकि पेड़ उगाना वर्षों का काम होता है। प्रकृति की नियमावली में संहार जल्दी सम्भव होता है किन्तु विकास जल्दी सम्भव नहीं होता है। चिकित्सकों के अनुसार रोग भी एक विकास है। वह न तो छूत का परिणाम है और न ही बाहर से आकर शरीर में घर करता है रोग का विकास और विनाश धीरे-धीरे होता है। जब हमारे शरीर में रोग के चिन्ह प्रकट होते हैं तो हमें यह नहीं समझना चाहिए कि रोग अभी ही प्रकट हुआ है। जबकि रोग तो बहुत पहले से ही हमारे शरीर में प्रवेश कर चुका होता है। इसी प्रकार इलाज के बाद रोग के चिन्ह मिट जाने के बाद भी हमें यह नहीं समझना चाहिए कि रोग पूरी तरह से नष्ट हो गया है। रोग पूरी तरह से ठीक होने में काफी समय लगता है। इलाज के काफी समय बाद रोग का बीज नष्ट होता है तथा रोगी नवजीवन और दीर्घायु प्राप्त करता है। इसमें संदेह होता है कि रोग से जल्दी छुटकारा न मिलने के कारण, रोगी का धैर्य छूट जाना स्वाभाविक होता है, किन्तु उसकी अधीरता को भी हमें उसके रोग का ही एक अंग समझकर उसे धैर्य धारण कराना चाहिए और चिकित्सा क्रम जारी रखकर उसको स्वस्थ बनाना चाहिए।

8. प्राकृतिक चिकित्सा से दबे हुए रोग उभरते हैं- 
 औषधीय उपचार से रोग दबे रह जाते हैं। इसकी तुलना में प्राकृतिक चिकित्सा प़द्धति से रोगों का उपचार करने से दबे हुए रोग भी उभरकर जड़ सहित हमेशा के लिए नष्ट हो जाते हैं।
          प्राकृतिक चिकित्सा में रोगों के उभार को चिकित्सीय भाषा में रोग का तीव्र रूप, रोग की अपकर्षावस्था, पुराने और प्रत्यावर्तन, रोग उपशन संकट आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है। इसका अर्थ यह होता है कि जीर्णरोग के समय ही उस रोग की तीव्र प्रतिक्रिया का होना अथवा दबे रोग का प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा उपचार प्राप्त जीवनीशक्ति के प्रभाव से रोग जड़ सहित नष्ट हो जाता है जिससे रोगी स्वस्थ हो जाता है।
          रोगों का उभार साधारणतया 2-4 दिन अथवा अधिक से अधिक 7 दिनों तक में समाप्त हो जाता है और शरीर को रोगों से छुटकारा मिल जाता है। उभार की क्रिया में यह एक अद्भुत बात है कि रोगी के शरीर में जितने भी रोग दबे होते हैं उभार काल में उसके विपरीत क्रम से एक-एक रोग उभरते हैं और नष्ट होते जाते हैं। प्रत्येक दो रोगों के बीच में कुछ अंतर होता है जैसे- किसी रोगी को पहले दस्त की बीमारी हुई तथा दवाओं के सेवन के बाद वह दब गई। इसके बाद बुखार हुआ और वह भी दवा के कारण नष्ट हो गया। हमारे शरीर के पुराने रोगों को शरीर से बाहर निकालने में प्रकृति को एक निश्चित समय तक कार्य करना पड़ता है।
विशेष :
          लोगों को मल-मूत्र त्याग करते समय जो भी थोड़ी सी परेशानी होती है वह प्राकृतिक चिकित्सा का उभार होता है क्योंकि मल-मूत्र त्याग के बाद हमारा शरीर पहले से हल्का प्रतीत होता है। महिलाओं में प्रतिमाह मासिकधर्म का होना, प्रसव के समय होने वाला दर्द, पके हुए फोड़े का असहनीय दर्द और टीसन तथा शरीर में चुभे हुए कांटे को निकालते समय का दर्द आदि सभी `प्राकृतिक उभार` क्रिया के ही उदाहरण हैं। सभी तीव्र रोग जैसे हैजा, ज्वर, चेचक आदि हमारे मल से भरे शरीर से, शरीर की जीवनीशक्ति द्वारा, मल को अधिक वेग के साथ निकाल फेंकने में शीघ्रता करते हैं, उसे हम रोगों का तीव्र या तीव्र उपशम संकट कहते हैं।
          इस प्रकार स्पष्ट होता है कि रोगों के इलाज के समय में रोग का उभार होना कितना कल्याणकारी, मंगलमय और आवश्यक है, जिससे हमें बिल्कुल भी घबराना और डरना नहीं चाहिए। हालांकि उभार को जल्दी लाने और उसे तेजी से नष्ट करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए क्योंकि इस समय जल्दबाजी करना हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है। प्रकृति द्वारा धीरे-धीरे कार्य करने का नियम यहां भी अपनाना चाहिए। परेशान करने वाले उभार उन्हीं व्यक्तियों में होते हैं जो व्यक्ति रोगों के उपचार के लिए पहले ही विषाक्त औषधियों का सेवन कर चुके होते हैं और जिनको निकालने में प्राकृतिक चिकित्सक अधिक जल्दी करते हैं। जो लोग प्राकृतिक जीवनयापन करते हैं और दवाओं से बचे रहते हैं उनके बीमार पड़ने के बाद ठीक होने के समय उभार होते ही नहीं हैं या तो बहुत अधिक हल्के होते हैं और इतने से ही पूरी तरह से स्वस्थ हो जाते हैं।
 
9. प्राकृतिक चिकित्सा से मन, शरीर तथा आत्मा तीनों स्वस्थ होते हैं-
 हमारा शरीर, मन और आत्मा तीनों का परस्पर सामंजस्य ही पूर्ण स्वास्थ्य होता है। प्राकृतिक चिकित्सा में इन तीनों की स्वास्थ्योन्नति पर बराबर ध्यान रखा जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली की यह सबसे बड़ी विशेषता होती है। प्राकृतिक चिकित्सक मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य को उसके शारीरिक स्वास्थ्य से अधिक आवश्यक समझते हैं। एक प्राकृतिक चिकित्सक की दृष्टि में मनुष्य शरीर के स्वास्थ्य का सम्बंध उसके मन और आत्मा से भी होता है।
          प्राकृतिक जीवन, रहन, सहन, तथा प्राकृतिक आहार हमारे जीवन में सात्विकता लाकर हमारे शरीर को स्वस्थ रखते हैं ये हमारे मन का संयम करके हमें आध्यात्म की ओर ले जाते हैं। यह असत्य नहीं है कि यदि मानव जाति प्राकृतिक चिकित्सा दर्शन को अपनाए तो निर्दयता, पाशुविकता, पैशाचिकता तथा हिंसा का स्थान इस संसार में बचेगा ही नहीं और पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आएगा। रोगी शरीर, निर्बल आत्मा और कलुषित मन तीनों के इलाज हेतु अपने आराध्य की प्रार्थना अथवा राम के नाम का जाप करना ही चिकित्सा होती है।

10. प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा रोग के उपचार में उत्तेजक औषधियों का सेवन नहीं करना चाहिए - 
औषधियों के द्वारा रोगों के उपचार का सिद्धांत है कि रोग बाहरी चीज है और वह हमारे शरीर में अचानक आक्रमण के समान आते हैं। इसलिए अधिक शक्तिशाली से शक्तिशाली औषधियों का प्रयोग करके रोगों से लड़ना चाहिए। इसीलिए डाक्टर और वैद्य जहरीली औषधियों जैसे पारा, अफीम, संखिया आदि का प्रयोग करके रोगों को नष्ट करने का प्रयास करते हैं और इस बात को नज़रअंदाज (अनसुनी) कर देते हैं कि सेवन के लिए दी जाने वाली औषधियां विष ही हैं। चाहे उसकी मात्रा कम हो या अधिक हो उसका सेवन हमारे शरीर के लिए अधिक घातक और हानिकारक होता है। जहरीली वस्तुओं के सेवन से रोग घटने के स्थान पर बढ़ने लगता है। इसलिए प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली में उत्तेजक और जहरीले पदार्थों का सेवन अनावश्यक ही हमारे शरीर के लिए हानिकारक होता है। इसका कारण यह है कि प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धांत औषधीय चिकित्सीय प्रणाली से बिल्कुल ही अलग है। प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली में रोग बाहरी चीज नहीं बल्कि शरीर के आंतरिक भाग की चीज मानी जाती है। जिसे प्राकृतिक साधनों द्वारा दूर किया जाता है अर्थात जिन प्राकृतिक उपायों को अपनाकर हम रोगों से बचे रहते हैं, उन्हीं तरीकों को अपनाकर हम रोगों को नष्ट करते हैं।
          प्राकृतिक चिकित्सक औषधियों को हमारे शरीर के लिए अनावश्यक ही नहीं बल्कि हानिकारक भी मानते हैं। प्रकृति स्वयं ही एक चिकित्सक होती है, यह दवा नहीं हैं। औषधियों का काम रोग को छुड़ाना नहीं है। औषधि तो वह सामग्री है जो प्रकृति के द्वारा रोगों को नष्ट करने के लिए प्रयोग की जाती है। प्राकृतिक चिकित्सा में औषधि की यही वास्तविक परिभाषा होती है।
          सभी प्रकार के खाद्य-पदार्थ औषधीय गुणों से भरे होते हैं जैसे हवा, जल, सूर्य का प्रकाश से लेकर फल, सब्जी और विषहीन जड़ी-बूटियां तक जो खाद्य वस्तुओं के समान ही प्रयोग की जा सकती हैं औषधि कहलाती हैं। प्राकृतिक चिकित्सा के अंतर्गत यहीं खाद्य-पदार्थ औषधियां और आहार दोनों ही होते हैं। इसी तरह से काष्ठ औषधियां भी प्राकृतिक चिकित्सा के अंतर्गत आती हैं किन्तु शर्त यह है कि वे अनुत्तेजक और चिकित्सा के अंतर्गत हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में काष्ठ औषधोपचार और खाद्योपचार एक ही वस्तु के दो नाम होते हैं। प्राय: सभी उद्भिज पदार्थों में जो मनुष्य के भोजन के अंश हो सकते हैं, प्राणकणों के लिए अच्छी और ताजी काष्ठ औषधियां होती हैं जिनका प्रयोग प्राकृतिक चिकित्सा के रोगी के स्वभाव की सहायता पहुंचाने के लिए किया जाता है।

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