अथ खेचरीमुद्राकथनम्।
जिह्वाधोनाडीं संछिन्नां रसनां चालयेत् सदा। दोहयेन्नवनीतेन लोहयन्त्रेण कर्षयेत् ॥२५॥
एवं नित्यं समाभ्यासाल्लम्बिकादीर्घतां ब्रजेत्। यावद्गच्छेद्भ्रुवोर्मध्ये तथा गच्छति खेचरी ॥२६॥
रसनां तालुमध्ये तु शनैः शनैः प्रवेशयेत्। कपालकुहरेजिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा। भ्रुवोर्मध्ये गता दृष्टिमुर्द्रा भवति खेचरी ॥२७॥
अथ खेचरीमुद्राफलकथनम्।
न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैवालस्यं प्रजायते। न च रोगो जरामृत्युर्देवदेहं प्रपद्यते ॥२८॥
नाग्निनादह्येतेगात्रं न शोषयति मारुतः। न देहं क्लेदयन्त्यापो दंशयेन्न भुजङ्गमः ॥२९॥
लावण्यं च भवेद्गात्रे समाधिर्जायते ध्रुवम्। कपाल वक्त्रसंयोगे रसना रसमाप्नुयात् ॥३०॥
नाना रससमुद्भूतमानन्दं च दिने दिने। आदौ लवणक्षारं च ततस्तिक्त कषायकम् ॥३१॥
नवनीतं धृतं क्षीरं दधितक्रमधूनि च। द्राक्षा रसं च पीयूषं जायते रसनोदकम् ॥३२॥
श्रीघेरण्डसंहितायां घेरण्डचण्डसंवादे घटस्थयोगप्रकरणे मुद्राप्रयोगो नाम तृतीयोपदेशः ॥
खेचरी मुद्रा करने की पूर्व तयारी :
इस मुद्रा में सफलता प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम जिह्वा को बढाने के उपाय किये जाते हैं जिससे जिह्वा लंबी होकर नाक, भौंह और सिर को स्पर्श करने लगे। जिह्वा को बढ़ाने की क्रिया प्रमुख तीन विधियों से की जाती है – छेदन,चालन और दोहन | इनमे से छेदन और चालन कठिन है अतः इन्हें किसी योग्य गुरु की देखरेख में ही करना उचित है | सामान्य गृहस्थजनों को प्रतिदिन प्रातःकाल जीभ को दोनों हाथों के अंगूठे और तर्जनी उंगली से पकड़कर दोहन करना चाहिए जैसे गाय का दूध निकालते समय दोहन करते हैं। इसके बाद जीभ पर त्रिफला का चूर्ण लगा लेंना चाहिए । इस कार्य मे जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। इसके अभ्यास में कम से कम 6 महीने से अधिक समय लग सकता है, अतः धैर्यपूर्वक करें ।
विधि :
सावधानियां :
मुद्रा करने का समय व अवधि :
खेचरी मुद्रा का अभ्यास करने का उपयुक्त समय प्रातः एवं संध्याकाल है | प्रारंभ में इस मुद्रा को 20 बार एवं 2 माह के बादप्रतिदिन 8 बार करना उचित है।
चिकित्सकीय लाभ :
आध्यात्मिक लाभ :
जिह्वाधोनाडीं संछिन्नां रसनां चालयेत् सदा। दोहयेन्नवनीतेन लोहयन्त्रेण कर्षयेत् ॥२५॥
एवं नित्यं समाभ्यासाल्लम्बिकादीर्घतां ब्रजेत्। यावद्गच्छेद्भ्रुवोर्मध्ये तथा गच्छति खेचरी ॥२६॥
रसनां तालुमध्ये तु शनैः शनैः प्रवेशयेत्। कपालकुहरेजिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा। भ्रुवोर्मध्ये गता दृष्टिमुर्द्रा भवति खेचरी ॥२७॥
अथ खेचरीमुद्राफलकथनम्।
न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैवालस्यं प्रजायते। न च रोगो जरामृत्युर्देवदेहं प्रपद्यते ॥२८॥
नाग्निनादह्येतेगात्रं न शोषयति मारुतः। न देहं क्लेदयन्त्यापो दंशयेन्न भुजङ्गमः ॥२९॥
लावण्यं च भवेद्गात्रे समाधिर्जायते ध्रुवम्। कपाल वक्त्रसंयोगे रसना रसमाप्नुयात् ॥३०॥
नाना रससमुद्भूतमानन्दं च दिने दिने। आदौ लवणक्षारं च ततस्तिक्त कषायकम् ॥३१॥
नवनीतं धृतं क्षीरं दधितक्रमधूनि च। द्राक्षा रसं च पीयूषं जायते रसनोदकम् ॥३२॥
श्रीघेरण्डसंहितायां घेरण्डचण्डसंवादे घटस्थयोगप्रकरणे मुद्राप्रयोगो नाम तृतीयोपदेशः ॥
खेचरी मुद्रा करने की पूर्व तयारी :
इस मुद्रा में सफलता प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम जिह्वा को बढाने के उपाय किये जाते हैं जिससे जिह्वा लंबी होकर नाक, भौंह और सिर को स्पर्श करने लगे। जिह्वा को बढ़ाने की क्रिया प्रमुख तीन विधियों से की जाती है – छेदन,चालन और दोहन | इनमे से छेदन और चालन कठिन है अतः इन्हें किसी योग्य गुरु की देखरेख में ही करना उचित है | सामान्य गृहस्थजनों को प्रतिदिन प्रातःकाल जीभ को दोनों हाथों के अंगूठे और तर्जनी उंगली से पकड़कर दोहन करना चाहिए जैसे गाय का दूध निकालते समय दोहन करते हैं। इसके बाद जीभ पर त्रिफला का चूर्ण लगा लेंना चाहिए । इस कार्य मे जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। इसके अभ्यास में कम से कम 6 महीने से अधिक समय लग सकता है, अतः धैर्यपूर्वक करें ।
विधि :
- सुखपूर्वक किसी ध्यानात्मक आसन में बैठकर मुंह के अन्दर जीभ को उपर की ओर उलटी ले जाकर तालू-कुहर (जीभ के उपर तालू के बीच का गड्ढा) में लगाने से खेचरी मुद्रा हो जाती है |
- इस तरह से जिह्वा को तालू से लगाने पर इड़ा-पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी के खुले हुए द्वार बंद हो जाते हैं एवं ब्रह्मरंध्र से टपकने वाला रस जिह्वा पर टपकने लगता है । योग में इसे अमृतपान कहा जाता है।
सावधानियां :
- शारीरिक श्रम करने के तुरंत बाद इस मुद्रा को नहीं करना चाहिए।
- यदि जिह्वा पर नाक के ऊपर के भाग से कड़वा सा रस टपकने लगे तो यह मुद्रा तत्काल रूप से बंद कर देनी चाहिए।
- खेचरी मुद्रा का अभ्यास अत्यधिक कठिन होता है इसलिए इसे सावधानी के साथ अथवा किसी योग्य गुरू के निर्देशन में करना उचित है ।
मुद्रा करने का समय व अवधि :
खेचरी मुद्रा का अभ्यास करने का उपयुक्त समय प्रातः एवं संध्याकाल है | प्रारंभ में इस मुद्रा को 20 बार एवं 2 माह के बादप्रतिदिन 8 बार करना उचित है।
चिकित्सकीय लाभ :
- खेचरी मुद्रा के अभ्यास से मुंह के अंदर लार का स्राव बढ़ता है जिससे पाचन तंत्र सबल होता है एवं भूख बढती है एवं बवासीर रोग नष्ट हो जाता है |
- इस मुद्रा से प्यास पर नियंत्रण होता है।
- इसके अभ्यास से हकलाहट एवं तुतलाहट जैसे रोगों में लाभ मिलता है |
- जीर्ण बेहोशी के रोग में यह मुद्रा अत्यधिक लाभकारी है।
आध्यात्मिक लाभ :
- इस मुद्रा के अभ्यास से साधक का तीसरा नेत्र खुल जाता है जिससे साधक के लिए कुछ भी असंभव नही रहता |
- योग में खेचरी मुद्रा को अनेक सिद्धियां प्राप्त करने का प्रभावी साधन माना गया है |
- खेचरी मुद्रा से वाणी एवं मन पर सयंम होता है |
- खेचरी मुद्रा के अभ्यास से प्राणों का संचय होता है एवं कुंडलिनी शक्ति जाग्रत होती है।
- खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाने पर साधक अपनी इच्छानुसार श्वास को जब तक चाहे रोक सकते हैं।
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