हठयोग-प्रदीपिका में जरा मरण नाशक दस मुद्राओं का वर्णन किया गया है , मूलबन्ध उनमें से एक है |
अथ मूलबन्धकथनम्।
पार्ष्णिना वामपादस्य योनिमाकुञ्चयेत्ततः।
नाभिग्रंथिमेरुदण्जे संपीड्य यत्नतः सुधीः।१४॥
मेढ्रं दक्षिणगुल्फे तु दृढबन्धं समाचरेत्।
जराविनाशिनी मुद्रा मूलबन्धो निगद्यते ॥१५॥
अथ मूलबन्धस्य फलकथनम्।
संसार समुद्रं तर्तुमभिलषति यः पुमान्। विजनेषु गुप्तो भूत्वा मुद्रामेनां समभ्यसेत् ॥१६॥
अभ्यासाद् बन्धनस्यास्य मरुत्सिद्धिर्भवेद्ध्रुवम्। साधयेद्यत्नतो तर्हि मौनी तु विजितालसः ॥१७ ||श्रीघेरण्डसंहिता |
मूलबन्ध की विधि :
सावधानियां :
इस मुद्रा को जब तक आप सांस को अंदर की ओर रोककर रख सकते हैं उसी के अनुसार शुरुआत में 5 से 10 बार करें और धीरे-धीरे इसको करने का समय बढ़ाते जाएं। मूलबन्ध करने के4-5 घंटे पहले एवं 30 मिनट बाद तक कुछ नही खाना चाहिए |
मूलबन्ध करने का समय व अवधि :
मूलबन्ध प्रातः खाली पेट करना सबसे उचित है सायं जब भोजन करे कम से कम 4-5 घंटा हो जाये तब कर सकते हैं | प्रारंभ में इस अभ्यास को 4-5 बार करें फिर धीरे-धीरे इस क्रम को बढ़ाते हुए 21 बार तक करें |
विशेष :
मूलबन्ध को वैसे तो किसी भी अवस्था में जैसे खड़े होकर, बैठकर या लेटकर । लेकिन इसको करने के लिए सबसे अच्छा आसन सिद्धासन होता है क्योंकि ऐसी अवस्था में एड़ी मूलाधार से लगी होने के कारण अभ्यास करने में मददगार होती है। मूलबन्ध करते समय सांस की गति स्वाभाविक रूप से रुक जाती है और शरीर में कम्पन-सा होने लगता है| योग के अनुसार शौच की अवस्था में जब हम मल को रोकते हैं, तब शंखिनी नाड़ी को ऊपर की ओर खींचना पड़ता है, जबकि मूत्र को रोकने के लिए कुहू नाड़ी को खींचा जाता है| गुदाद्वार और मूत्राशय के बीच वाली जगह को योनिमंडल कहते है। इसी के ऊपर रीढ़ का वो स्थान होता है जिसे कन्द कहते है। यहीं से इड़ा और पिंगला नाड़ी शुरू होती हैं। इड़ा नाड़ी बाईं ओर तथा पिंगला नाड़ी दाईं ओर चढ़ती हुई एक ही जगह पर जाकर समाप्त होती है। फिर ये 2 हिस्सों में बंटकर एक माथे और दूसरी ब्रह्मरंध्र तक जाती है। ये नाड़ियां सांस लेने की क्रिया को पूरी तरह से काबू में करती है। मूल स्थान से कुछ दूर ओर 2 शंखिनी नाड़ी पैदा होती है।
चिकित्सकीय लाभ :
आध्यात्मिक लाभ :
अथ मूलबन्धकथनम्।
पार्ष्णिना वामपादस्य योनिमाकुञ्चयेत्ततः।
नाभिग्रंथिमेरुदण्जे संपीड्य यत्नतः सुधीः।१४॥
मेढ्रं दक्षिणगुल्फे तु दृढबन्धं समाचरेत्।
जराविनाशिनी मुद्रा मूलबन्धो निगद्यते ॥१५॥
अथ मूलबन्धस्य फलकथनम्।
संसार समुद्रं तर्तुमभिलषति यः पुमान्। विजनेषु गुप्तो भूत्वा मुद्रामेनां समभ्यसेत् ॥१६॥
अभ्यासाद् बन्धनस्यास्य मरुत्सिद्धिर्भवेद्ध्रुवम्। साधयेद्यत्नतो तर्हि मौनी तु विजितालसः ॥१७ ||श्रीघेरण्डसंहिता |
- सिद्धासन या पद्मासन की स्थिति में बैठ जाएँ(चित्र देखें),दोनों हाथ घुटनों पर रहें तथा रीढ़ की हड्डी सीधी रहे |
- धीरे-धीरे पूरी श्वास अन्दर भरें एवं रोककर रखें |
- गर्दन को नीचे झुकाकर ठुड्डी को कंठकूप में लगायें (जलंधर बंध) तथा गुदा प्रदेश को सिकोड़ लें |
- आराम से जितनी देर रुक सकते हैं श्वास रोककर इसी मुद्रा में रहें |
- बंध खोलते समय पहले गुदा प्रदेश के संकुचन को ढीला छोड़ें तत्पश्चात सिर को धीरे से उपर उठायें (जलंधर बंध खोलें ) एवं श्वास को बाहर निकाल दें |
सावधानियां :
इस मुद्रा को जब तक आप सांस को अंदर की ओर रोककर रख सकते हैं उसी के अनुसार शुरुआत में 5 से 10 बार करें और धीरे-धीरे इसको करने का समय बढ़ाते जाएं। मूलबन्ध करने के4-5 घंटे पहले एवं 30 मिनट बाद तक कुछ नही खाना चाहिए |
मूलबन्ध करने का समय व अवधि :
मूलबन्ध प्रातः खाली पेट करना सबसे उचित है सायं जब भोजन करे कम से कम 4-5 घंटा हो जाये तब कर सकते हैं | प्रारंभ में इस अभ्यास को 4-5 बार करें फिर धीरे-धीरे इस क्रम को बढ़ाते हुए 21 बार तक करें |
विशेष :
मूलबन्ध को वैसे तो किसी भी अवस्था में जैसे खड़े होकर, बैठकर या लेटकर । लेकिन इसको करने के लिए सबसे अच्छा आसन सिद्धासन होता है क्योंकि ऐसी अवस्था में एड़ी मूलाधार से लगी होने के कारण अभ्यास करने में मददगार होती है। मूलबन्ध करते समय सांस की गति स्वाभाविक रूप से रुक जाती है और शरीर में कम्पन-सा होने लगता है| योग के अनुसार शौच की अवस्था में जब हम मल को रोकते हैं, तब शंखिनी नाड़ी को ऊपर की ओर खींचना पड़ता है, जबकि मूत्र को रोकने के लिए कुहू नाड़ी को खींचा जाता है| गुदाद्वार और मूत्राशय के बीच वाली जगह को योनिमंडल कहते है। इसी के ऊपर रीढ़ का वो स्थान होता है जिसे कन्द कहते है। यहीं से इड़ा और पिंगला नाड़ी शुरू होती हैं। इड़ा नाड़ी बाईं ओर तथा पिंगला नाड़ी दाईं ओर चढ़ती हुई एक ही जगह पर जाकर समाप्त होती है। फिर ये 2 हिस्सों में बंटकर एक माथे और दूसरी ब्रह्मरंध्र तक जाती है। ये नाड़ियां सांस लेने की क्रिया को पूरी तरह से काबू में करती है। मूल स्थान से कुछ दूर ओर 2 शंखिनी नाड़ी पैदा होती है।
चिकित्सकीय लाभ :
- जठराग्नि प्रदीप्त होने से पाचन शक्ति बढ़ जाती है |
- मूलबन्ध को करने से कब्ज समाप्त होती है और भूख तेज हो जाती है।
- इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर का आलस्य एवं भारीपन समाप्त होता है ।
- मूलबन्ध पुरुषों के धातुरोग और स्त्रियों के मासिकधर्म सम्बंधी रोगों में बहुत ही लाभकारी है।
- मूलबन्ध से बवासीर एवं भगंदर रोग समाप्त हो जाते है ।
- मूलबन्ध के नियमित अभ्यास से गुदा प्रदेश के स्नायु और काम ग्रंथियां सबल एवं स्वस्थ होती हैं| इससे स्तम्भन शक्ति बढ़ती है|
आध्यात्मिक लाभ :
- मूलबन्ध लगाने से मूलाधार चक्र जाग्रत होता है | यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह 'आधार चक्र' है। 99.9 लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।
- इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना आवश्यक है।
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